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उत्तराखंड के निकाय चुनाव 2025: मुद्दे, वादे और 'चुनावी नमक-मिर्च

उत्तराखंड के निकाय चुनाव 2025: मुद्दे, वादे और 'चुनावी नमक-मिर्च

लेखक: चुनावी पंडित (बिना कसम खाए)

उत्तराखंड में 2025 के निकाय चुनावों की गूंज हर गली, नुक्कड़ और पान की दुकान पर सुनाई दे रही है। राजनीति का असली मजा तब आता है जब नेता जी चुनावी वादों की गंगा बहाते हैं, जनता उस गंगा में डुबकी लगाकर ताली बजाती है, और चुनाव के बाद वही जनता सूखा महसूस करती है। तो चलिए, आज इस चुनावी समर की चर्चा करते हैं, थोड़ी गंभीरता के साथ और थोड़ी हंसी-मजाक के साथ।





1. चुनावी मौसम: गली-गली में बजरंगी

निकाय चुनाव आते ही राजनीति के शेर गली-गली घूमते दिखते हैं। जो नेता पिछले पांच साल तक 'मोबाइल नेटवर्क से बाहर' थे, वो अचानक "भाईसाब, कैसे हो?" पूछते हुए आपके घर तक आ पहुंचते हैं। यहां तक कि आपकी पुरानी साइकिल पर भी नजर डालकर कहेंगे, "अरे! ये तो अब बदलने लायक हो गई है, हमारे आने के बाद सब बदल जाएगा!"


2. चुनावी मुद्दे: वो ही घिसे-पिटे वादे

हर बार की तरह इस बार भी वादों की गिनती खत्म नहीं होगी। कुछ आम चुनावी मुद्दे इस प्रकार हैं:

  • पानी की समस्या: नेता जी कहेंगे, "इस बार ऐसा पाइपलाइन डालेंगे कि गंगाजल घर-घर पहुंचे!" लेकिन चुनाव बाद जनता को बाल्टी लेकर सरकारी नल पर ही लाइन में लगना पड़ेगा।
  • बिजली संकट: "24 घंटे बिजली देंगे!"—मगर मुफ्त में नहीं, और कभी-कभी 24 मिनट में ही निपट जाएगा।
  • सड़कें: हर गड्ढे में 'स्मार्ट सिटी' के सपने दिखाए जाएंगे, लेकिन असल में सड़कें ऐसी रहेंगी कि बाइक चलाते ही हड्डी रोग विशेषज्ञ की जरूरत पड़ जाए।


3. जनता की चुनावी समझ: बुद्धिमान या भावुक?

हमारी जनता भी कम नहीं, वोट डालने से पहले हर एक उम्मीदवार की 'जाति', 'धर्म' और 'पार्टी' से ज्यादा उनकी 'खर्च' करने की क्षमता पर ध्यान देती है। चाय-समोसे की मीटिंग्स और "फलाना नेता जी बहुत अच्छे हैं" वाली बहसों का सिलसिला जोरों पर है।


4. सोशल मीडिया और चुनाव: मीम बनाम भाषण

पहले चुनाव सिर्फ बैनरों और पोस्टरों पर लड़ा जाता था, अब लड़ाई फेसबुक और व्हाट्सएप ग्रुप्स में हो रही है। हर गली का नेता अब इंस्टाग्राम पर लाइव जाकर "जय हो" बोल रहा है, और जनता कमेंट में ट्रोलिंग कर रही है।


5. परिवार की चुनावी 'रणनीति'

चुनाव के समय हर घर में "कौनसी पार्टी सही है" को लेकर रोज नई चर्चा होती है। मम्मी कहती हैं, "जो इस बार गली की लाइट ठीक करवाएगा, उसी को वोट देंगे।" पापा कहते हैं, "अरे बेटा, विकास नहीं देख रहा क्या?" और दादी कहती हैं, "जो पिछली बार लड्डू लेकर आया था, उसी को वोट देना है!"


6. उम्मीदवारों का 'मेनिफेस्टो' बनाम हकीकत

नेता लोग अपने घोषणापत्र में कहेंगे:

  • "हर मोहल्ले में फ्री वाई-फाई देंगे!" (शर्त यह है कि आप राउटर खुद खरीदें)
  • "हर वार्ड में एक पार्क बनाएंगे!" (बस बेंच नहीं होगी, क्योंकि बजट खत्म हो जाएगा)
  • "बेरोजगारी खत्म करेंगे!" (बेरोजगारों को नारियल फोड़ने की ड्यूटी मिलेगी)

7. चुनाव के बाद: 'अब पांच साल बाद मिलेंगे!'

चुनाव खत्म होते ही नेताजी फिर से गायब, जनता फिर से परेशान। गड्ढे फिर से पहले जैसे हो जाएंगे, और वादे वापस "अगली बार" में बदल जाएंगे।


निष्कर्ष: वोट सोच-समझ कर दें!

तो प्यारे पाठकों, हंसी-मजाक अपनी जगह, लेकिन चुनावी अधिकार को हल्के में न लें। सही उम्मीदवार को वोट दें, ताकि भविष्य में हमारी गलियों में वादों के नहीं, बल्कि विकास के पोस्टर लगें।


अगर यह लेख पसंद आया हो तो अगली बार किसी नेता को पढ़ाकर जरूर दिखाएं, शायद उन्हें कुछ सीख मिल जाए!

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