गैरसैंण के साथ पिछले 24 वर्षों में क्या मजाक हुआ?
वादा किया, पर निभाया नहीं—गैरसैंण की कहानी
परिचय: महानुभावों का सपना, गैरसैंण की कहानी
उत्तराखंड की राजनीति में अगर किसी एक मुद्दे ने हर बार हंसी का पात्र बना है, तो वो है गैरसैंण। 2000 में राज्य बनने के बाद से, इस छोटे से पहाड़ी कस्बे को राजधानी बनाने का सपना कई बार देखा गया, लेकिन हकीकत में यह सपना कब हकीकत बनेगा, ये अभी भी अनसुलझा सवाल है। पिछले 24 वर्षों में गैरसैंण के साथ जो हुआ है, वह राजनीतिक मजाक का सबसे बेहतरीन उदाहरण है। आइए, इस मजेदार और व्यंग्यात्मक कहानी की तह तक चलते हैं, जो शायद ही कभी पुरानी हो।
पहला अंक: राजधानी या मजाक?
सबसे पहले तो ये समझ लीजिए कि जब 2000 में उत्तराखंड बना था, तब नित्यानंद स्वामी मुख्यमंत्री बने थे। किसी ने उनके कान में "गैरसैंण" का नाम फुसफुसाया, और स्वामी जी ने मुस्कुरा कर कहा, "अच्छा मजाक है!" राजधानी बनाने की बात? भई, देहरादून के आराम को छोड़कर पहाड़ी कस्बे में कौन जाएगा? और इस तरह, गैरसैंण एक हंसी के पात्र के रूप में पैदा हुआ।
भगत सिंह कोश्यारी ने भी इस मुद्दे पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया, शायद उन्हें भी लगा कि यह विचार सिर्फ बातचीत का हिस्सा बनकर रह गया है। लेकिन असली खेल तो अभी बाकी था।
दूसरा अंक: “गैरसैंण के इर्द-गिर्द खेली गई राजनीति”
नारायण दत्त तिवारी आए और उन्होंने भी अपने राजनीतिक अनुभव के साथ गैरसैंण को महत्व नहीं दिया। और क्यों देते? आखिरकार, ये तो बस एक नाम था, जिससे ज्यादा परेशानी लेना ठीक नहीं।
बी. सी. खंडूरी ने इस विचार को हल्के-फुल्के अंदाज में लिया, लेकिन जैसे ही वह इससे ऊब गए, उन्होंने इसे वहीं छोड़ दिया। और इस तरह गैरसैंण एक बार फिर अपने पुराने पिटारे में बंद हो गया।
रमेश पोखरियाल 'निशंक' ने गैरसैंण का जिक्र अपने भाषणों में किया, जैसे हम अपने पुराने दोस्तों का करते हैं, जिनसे मिलना लगभग असंभव है। पर हां, उन्होंने इतना किया कि गैरसैंण की चर्चा को थोड़ी और हवा दे दी।
तीसरा अंक: “गर्मियों की राजधानी - हंसी का नया बहाना”
अब बारी आई हरीश रावत की, जिन्होंने सोचा कि चलो एक और मजाक कर लेते हैं। उन्होंने एक दिन गैरसैंण में कैबिनेट बैठक बुलाई और घोषणा की, "यहां की गर्मियों की राजधानी बनाएंगे!" सबने ताली बजाई, और फिर… कुछ भी नहीं हुआ। “ग्रीष्मकालीन राजधानी” का मतलब भी अब समझ आ गया—एक ऐसी जगह जो केवल गर्मियों में याद आती है, और फिर भूल जाती है।
त्रिवेंद्र सिंह रावत ने 2020 में गैरसैंण को आधिकारिक तौर पर ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर दिया। वाह! राजनीति का नया ‘विकास मॉडल’—एक ऐसी राजधानी जहां काम करने के लिए आपको साल में कुछ ही महीनों का समय मिले। बाकी समय? वही पुरानी देहरादून, जो अभी भी असली राजधानी बनी हुई है।
तिरथ सिंह रावत और पुष्कर सिंह धामी ने इस शगूफे को जारी रखा। गैरसैंण अब भी एक ऐसी जगह है, जहां केवल दिखावे के लिए कभी-कभी बैठकों का आयोजन होता है। हां, वादे होते हैं, और फिर वे वादे ऐसे गायब हो जाते हैं जैसे बरफीले पहाड़ों से बर्फ!
अंतिम अंक: “राजधानी का अंत, या एक और शुरुआत?”
24 साल बीत गए, और गैरसैंण आज भी अपने भाग्य की प्रतीक्षा कर रहा है। हर बार जब भी कोई मुख्यमंत्री इसका जिक्र करता है, लोगों को मालूम होता है कि यह एक और मजाक है। गैरसैंण को राजधानी बनाने की बात अब सिर्फ राजनीतिक हास्य बनकर रह गई है। लोग जानते हैं कि यह वादा कभी भी सच नहीं होगा, लेकिन मजाक के तौर पर यह हमेशा लोगों को हंसा देता है।
निष्कर्ष: गैरसैंण—जो कभी हो सकती थी राजधानी, लेकिन…
गैरसैंण की कहानी बस एक पुराने मजाक की तरह हो गई है, जिसे बार-बार दोहराया जाता है, लेकिन इसका अंत नहीं होता। हर मुख्यमंत्री इस मुद्दे को उठाता है, वादे करता है, और फिर उसी पिटारे में वापस रख देता है। उत्तराखंड के लोग इस मजाक को समझ गए हैं—अब यह सिर्फ एक हंसी का पात्र बनकर रह गया है।
तो अगली बार जब आप किसी नेता को गैरसैंण को राजधानी बनाने की बात करते सुनें, तो बस मुस्कुराएं और इस राजनीतिक कॉमेडी का आनंद लें। आखिरकार, यह एक ऐसा मजाक है जो कभी पुराना नहीं होता।
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