क्या उत्तराखंड की सीमाएं ही उसकी बंदिशें बन गई हैं?
आपने कभी सोचा है, कि उत्तराखंड जैसा खूबसूरत राज्य, जो हिमालय की गोद में बसा है, हर साल हजारों पर्यटकों को आकर्षित करता है, आखिर क्यों बाकी राज्यों के मुकाबले पिछड़ा है? एक ऐसा राज्य, जिसकी सीमा चीन जैसे विशाल व्यापारिक देश से सटी है, वो खुद व्यापार के मामले में इतना पीछे क्यों है?
अगर आप सोच रहे हैं कि मैं सिर्फ उत्तराखंड की बात क्यों कर रहा हूं, तो आपको बता दूं कि यही हाल अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और हिमाचल प्रदेश जैसे अन्य सीमावर्ती राज्यों का भी है। लेकिन ये कहानी सिर्फ भूगोल की नहीं, ये कहानी है मौके छिन जाने की।
तो चलिए, इस कहानी को समझते हैं।
समुद्र बनाम सीमा: एक असमान संघर्ष
जब भारत और चीन की बात होती है, तो ज्यादातर लोग सीमा विवाद, सैनिक तनाव, और राजनीतिक असहमति पर ध्यान देते हैं। लेकिन क्या आपने गौर किया है कि इन विवादों के बीच आर्थिक संबंध कितने मजबूत हैं?
2023 में, भारत-चीन व्यापार का आंकड़ा $135 बिलियन को पार कर गया। लेकिन इसमें से ज़्यादातर व्यापार समुद्री मार्गों से हुआ। समुद्री रास्तों ने महाराष्ट्र, गुजरात, और तमिलनाडु जैसे राज्यों को आर्थिक रूप से मजबूत बना दिया। इन राज्यों ने ग्लोबल सप्लाई चेन में अपनी जगह बना ली।
दूसरी ओर, उत्तराखंड जैसे सीमावर्ती राज्यों को व्यापार के नाम पर सिर्फ प्रतिबंध, सैन्य चौकियां, और ‘सुरक्षा चिंताओं’ का ही सामना करना पड़ा। नतीजा?
- सीमावर्ती इलाकों में बेरोजगारी बढ़ी।
- युवाओं ने पलायन करना शुरू कर दिया।
- राज्य पिछड़ेपन की गिनती में आ गया।
क्या सीमा पर व्यापार असंभव है?
अब आप कहेंगे कि चीन के साथ सीमा पर व्यापार कैसे हो सकता है, जब सीमा पर तनाव रहता है। सही बात है। लेकिन क्या तनाव सिर्फ सीमा पर ही है? समुद्री रास्तों से तो व्यापार में कोई रुकावट नहीं आती।
सवाल ये है:
- अगर समुद्री व्यापार के लिए समझौते हो सकते हैं, तो सीमावर्ती इलाकों में क्यों नहीं?
- क्या उत्तराखंड जैसे राज्यों के पास ग्लोबल मार्केट से जुड़ने का अधिकार नहीं?
चीन ने तो अपने युन्नान और तिब्बत जैसे इलाकों को अंतरराष्ट्रीय व्यापार केंद्रों में बदल दिया। तो फिर भारत क्यों नहीं कर सकता?
उत्तराखंड की अनदेखी: नुकसान सिर्फ एक राज्य का नहीं
भौगोलिक संसाधनों का कम उपयोग:
उत्तराखंड में ऊन, जड़ी-बूटियां, जैविक उत्पाद, और हस्तशिल्प जैसे अनोखे उत्पाद हैं। लेकिन इन्हें बड़े बाजारों तक पहुंचाने के लिए न तो सही नीतियां हैं और न ही आधारभूत ढांचा।
पलायन: एक बड़ी चुनौती
यहां के युवा बड़े शहरों का रुख कर रहे हैं। नतीजा?
- गांव खाली हो रहे हैं।
- स्थानीय संस्कृति कमजोर हो रही है।
विकास की धीमी रफ्तार:
सीमावर्ती इलाकों में न सड़कों का जाल है, न रेल संपर्क, और न ही व्यापारिक हब। इन सबकी कमी ने उत्तराखंड को विकास की दौड़ में पीछे छोड़ दिया।
क्या किया जा सकता है?
अगर आप सोच रहे हैं कि अब क्या किया जा सकता है, तो समाधान मौजूद है।
सीमावर्ती व्यापार को प्रोत्साहन दें:
- चीन के साथ सीमावर्ती व्यापार बढ़ाने के लिए विशेष नीतियां बनें।
- व्यापार को नियंत्रित और सुरक्षित बनाने के लिए द्विपक्षीय समझौते हों।
- स्थानीय उत्पादों का अंतरराष्ट्रीयकरण:
- ऊन, जड़ी-बूटियां और जैविक उत्पादों को ग्लोबल मार्केट में प्रमोट करें।
- हस्तशिल्प के लिए ‘ब्रांड उत्तराखंड’ लॉन्च करें।
आधारभूत ढांचे का विकास:
- बेहतर सड़क और रेल संपर्क।
- सीमावर्ती इलाकों में ‘इंटरनेशनल ट्रेड हब’ की स्थापना।
विशेष आर्थिक क्षेत्र (SEZ):
- सीमावर्ती राज्यों में SEZ से रोजगार और निवेश बढ़ सकता है।
क्या चीन के बॉर्डर इलाकों से कुछ सीख सकते हैं?
युन्नान और तिब्बत को देखिए। चीन ने यहां रेलवे नेटवर्क, लॉजिस्टिक्स, और स्मार्ट ट्रेड सेंटर्स का जाल बिछाया। यह केवल विकास का मॉडल नहीं, बल्कि एक रणनीति भी है। भारत को इसी तरह अपने सीमावर्ती राज्यों पर ध्यान देने की जरूरत है।
तो क्या निष्कर्ष है?
सीमा व्यापार का मौका छिन जाने से उत्तराखंड जैसे राज्यों का पिछड़ापन बढ़ा है। समुद्री रास्तों ने महाराष्ट्र और गुजरात को जहां विश्वस्तरीय अर्थव्यवस्थाओं में बदल दिया, वहीं उत्तराखंड जैसे राज्यों को व्यापार की दौड़ से बाहर कर दिया।
अब समय आ गया है कि नीति-निर्माता उत्तराखंड और अन्य सीमावर्ती राज्यों पर ध्यान दें। व्यापारिक अवसरों के समान वितरण से ही इन राज्यों का भविष्य बदला जा सकता है।
आखिरी सवाल:
क्या सीमा व्यापार को बढ़ावा देना उत्तराखंड का भविष्य बदल सकता है? क्या आप इस पर विचार करेंगे?